Suniel Shetty के शादी-पेरेंटिंग बयान पर बवाल: जेंडर रोल, कानून और सोशल मीडिया की हकीकत
7 सितंबर 2025

सुनील शेट्टी का बयान, वायरल क्लिप और बहस की चिंगारी

एक इंटरव्यू में सुनील शेट्टी ने कहा—शादी समय, समझौते और एक-दूसरे के लिए जीने का नाम है; बच्चा होने के बाद पत्नी को प्राथमिक तौर पर उसकी देखभाल करनी चाहिए, जबकि पति करियर पर ध्यान दे। यह एक पंक्ति सोशल मीडिया पर घूमी और देखते ही देखते तर्क-वितर्क में बदल गई। किसी ने इसे पारंपरिक मान्यताओं का समर्थन बताया, तो बहुतों ने इसे 2024 के भारत के लिए ‘बैकडेटेड’ सोच कहा।

एक्टर ने यह भी जोड़ा कि पिता की भूमिका बनी रहती है, पर आजकल हर चीज़ में दबाव बढ़ गया है—खासकर ‘वर्चुअल वर्ल्ड’ की सलाहों से। उनके मुताबिक इंटरनेट की बाढ़ ने रिश्तों में अधैर्य बढ़ाया है; लोग एक-दूसरे को ठीक से समझने से पहले ही अलग होने की बात करने लगते हैं।

क्लिप वायरल हुई तो कमेंट सेक्शन में दो ध्रुव साफ दिखे। एक तरफ वे लोग जो कहते दिखे—“घर-परिवार में किसी एक को प्राथमिकता देनी ही होती है।” दूसरी तरफ वे, जो पूछ रहे थे—“क्यों ‘एक’ हमेशा महिला ही?” इसी सवाल ने इस विवाद को केवल एक बयान से आगे धकेल दिया—यह बहस अब काम, देखभाल और बराबरी पर आ टिकी है।

इंटरव्यू का सार अगर बिंदुओं में समझें तो बात कुछ यूं निकली:

  • शादी में धैर्य और समझौता जरूरी, नहीं तो रिश्ता टूटता है।
  • बच्चा होने के बाद पत्नी का फोकस बच्चे पर; पति करियर बनाए—पिता भी साथ दे, पर प्राथमिकता तय हो।
  • सोशल मीडिया की ‘ओवर-अडवाइस’ रिश्तों पर दबाव डालती है।

यहीं से विरोध शुरू हुआ। आलोचकों का कहना है कि ‘प्राथमिकता’ तय करने की यह रेखा अक्सर महिला की तरफ खिंच जाती है—परिवार की अनदेखी का नैरेटिव पुरुषों पर कम चढ़ता है, जबकि करियर ब्रेक और ‘मॉम-ट्रैकिंग’ का असर महिलाओं पर सीधा पड़ता है।

यह पहली बार नहीं जब वे कटघरे में हैं। कुछ समय पहले उन्होंने C-section पर टिप्पणी की थी—जहां उन्होंने प्राकृतिक प्रसव की तारीफ करते हुए सी-सेक्शन को “आरामदेह” बताया था। उस बयान पर ऐक्टर गौहर खान समेत कई लोगों ने आपत्ति जताई थी और कहा था कि यह मेडिकल फैसलों को हल्के में लेना है। अब नए इंटरव्यू के बाद वही पुरानी नाराजगी फिर सतह पर आ गई है।

दिलचस्प यह भी है कि शेट्टी अपनी निजी जिंदगी में लंबे समय से शादीशुदा हैं और वे अपनी शादी को ‘समझ-बूझ और साथ’ का नतीजा बताते हैं। समर्थक अक्सर इसी ‘अनुभव’ को तर्क बनाते हैं। लेकिन विरोधियों का कहना है—व्यक्तिगत अनुभव कई बार व्यापक हकीकत को नहीं समेट पाते, खासकर तब जब अर्थव्यवस्था, परिवार की संरचना और महिलाओं की शिक्षा-नौकरी के पैटर्न तेजी से बदल रहे हों।

‘वर्चुअल वर्ल्ड’ पर उनका इशारा भी बहस का विषय बना। सच है—पेरेंटिंग टिप्स से लेकर लव-लाइफ ‘रेड फ्लैग’ तक, हर चीज़ के इंस्टा-रील्स और यूट्यूब वीडियो हैं। एल्गोरिद्म आपको वही दिखाता है जिसे आप देखते हैं—खतरा तब है जब आधी-अधूरी सलाह ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ सच बन जाए। नए माता-पिता अक्सर उलझ जाते हैं: “किसकी सुनें?” यह डिजिटल शोर रिश्तों की बातचीत को आसान नहीं, मुश्किल बना देता है।

फिर भी, आलोचक पूछते हैं—अगर डिजिटल दबाव समस्या है, तो उसका हल जेंडर-न्यूट्रल साझेदारी है या एकतरफा ‘रोल-फिक्सिंग’? यही फर्क करणीय और वांछनीय के बीच खड़ा है—क्या हम पुराने फॉर्मूले को ही आज की चुनौती पर चिपका दें, या घर के काम और देखभाल का ब्लूप्रिंट नए सिरे से बनाएं?

जेंडर रोल बनाम नई हकीकत: कानून, आंकड़े और उद्योग की जमीन

भारत में नौकरी-पेशा महिलाओं का दायरा बढ़ रहा है। पीएलएफएस 2022-23 के मुताबिक महिलाओं की श्रम-भागीदारी दर ‘यूज़ुअल स्टेटस’ में करीब 37% तक पहुंची है—यह पिछले कुछ सालों की तुलना में उछाल है। शहरों में ड्यूल-इन्कम परिवार सामान्य होते जा रहे हैं, और पढ़ी-लिखी महिलाओं का करियर आकांक्षा अब अपवाद नहीं। ऐसे में जब कोई सार्वजनिक चेहरा कहता है कि देखभाल का प्राथमिक रोल पत्नी निभाए, तो यह सीधे-सीधे एक बड़ी आबादी के अनुभव से टकराता है।

कानूनी फ्रेमवर्क भी इस बहस का अहम हिस्सा है। भारत में मैटरनिटी बेनिफिट (अमेंडमेंट) एक्ट, 2017 औपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को 26 हफ्तों की पेड लीव देता है। कई कंपनियों को 50 या उससे ज्यादा कर्मचारियों पर क्रेच सुविधा भी रखनी होती है। इसके उलट पितृत्व अवकाश पर कोई ऑल-इंडिया निजी क्षेत्र का बाध्यकारी कानून नहीं—केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए 15 दिन पितृत्व अवकाश है, पर प्राइवेट सेक्टर में यह कंपनी नीति पर निर्भर है। सवाल साफ है—अगर सिस्टम ही पिता को पर्याप्त समय नहीं देता, तो ‘समान भागीदारी’ का आदर्श कैसे जिए?

घरेलू अर्थशास्त्र भी कम दिलचस्प नहीं। करियर ब्रेक अक्सर ‘स्किल डिप्रीशिएशन’ और सैलरी ग्रोथ पर असर डालते हैं। कई महिलाएं ब्रेक के बाद वही लेवल वापस पाने में वर्षों लगा देती हैं—कई बार इसके लिए नई डिग्री, अपस्किलिंग और नेटवर्किंग करनी पड़ती है। दूसरी तरफ शहरों में डे-केयर और मदद की लागत तेज़ी से बढ़ी है। नतीजा—कई परिवारों के सामने कठिन गणित: क्या एक की कमाई डे-केयर खर्च निकाल पाएगी? अगर नहीं, तो किसका करियर ‘पॉज़’ पर जाए?

काउंसलिंग रूम्स में भी यही गणित अटकता है। जोड़े कहते हैं—समानता की चाह है, पर समय और सपोर्ट स्ट्रक्चर नहीं। वर्क-फ्रॉम-होम ने कुछ राहत दी, पर ‘घरेलू काम’ का बोझ अपने आप बराबर नहीं बंटा। यह फर्क तब और दिखता है जब घर-ऑफिस के अदृश्य कामों को ‘काम’ माना ही नहीं जाता—फिर चाहे वह बच्चों की होमवर्क-मीटिंग्स हो, बुजुर्गों की दवा-डॉक्टर की अपॉइंटमेंट, या रोज़ की ग्रोसरी-लॉजिस्टिक्स।

फिल्म इंडस्ट्री की बात करें तो शूटिंग शेड्यूल अनियमित होते हैं—रात भर शूट, आउटडोर, आख़िरी मिनट की कॉल-टाइम। ऐसे माहौल में परिवार-कार्य संतुलन और चुनौतीपूर्ण है। पिछले दशक में कई प्रोडक्शन हाउसों ने सेट पर मदर-रूम और फीडिंग स्पेस जैसी सुविधाएं बढ़ाईं, पर यह अभी अपवाद है, नियम नहीं। एक दौर था जब शादी या मातृत्व को अभिनेत्री के करियर के लिए ‘रिस्क’ माना जाता था—अब करीना कपूर, अनुष्का शर्मा, आलिया भट्ट जैसी मिसालें बताती हैं कि यह सोच टूट रही है। लेकिन सिस्टम-लेवल सपोर्ट अभी भी अधूरा है।

सोशल मीडिया पर जो छवि बनती-बिगड़ती है, वह भी नए जमाने की असलियत है। जनमत अब टीवी स्टूडियो में नहीं, फोन की स्क्रीन पर बनता है। किसी के विचार पर आप असहमत हैं—फौरन मीम, रील, स्टोरी, थ्रेड। यह जवाबदेही लाता है, पर सुर्खियों का दबाव बढ़ाता है। सार्वजनिक चेहरों के लिए ‘शब्द-चयन’ आज पहले से ज्यादा मायने रखता है—क्योंकि गलतफहमी एक क्लिप की दूरी पर है।

इस पूरे घटनाक्रम में एक असहज सच बार-बार लौटता है—देखभाल का काम (केयर वर्क) अभी भी बड़े पैमाने पर महिलाओं के हिस्से आता है। नेशनल टाइम-यूज़ डेटा बताते हैं कि घर के बेतनरहित काम में महिलाओं की हिस्सेदारी पुरुषों से बहुत अधिक है। शहरों में भी, जहां सर्विस सेक्टर और टेक जॉब्स बढ़ रही हैं, शाम का ‘दूसरा शिफ्ट’ अक्सर महिलाओं के हिस्से आता है। यही कारण है कि ‘पत्नी देखभाल करे, पति कमाए’ जैसा वाक्य सिर्फ राय नहीं, एक पुरानी असमानता की प्रतिध्वनि सुनाई देता है।

क्या इसका मतलब यह है कि पारंपरिक समझौते हमेशा गलत हैं? नहीं। कई घरों में दोनों साथी आपसी सहमति से रोल तय करते हैं—कभी पति घर और बच्चा संभालते हैं, पत्नी तेज़ करियर दौड़ती हैं; कभी इसके उलट। फर्क बस इतना है—चॉइस ‘जेंडर-न्यूट्रल’ होनी चाहिए, न कि समाज की अपेक्षाओं से ठुसी हुई।

कानूनी-नीतिगत तस्वीर एक नज़र में:

  • मैटरनिटी बेनिफिट (अमेंडमेंट) एक्ट, 2017: औपचारिक क्षेत्र में 26 सप्ताह तक भुगतान सहित अवकाश; कुछ स्थितियों में क्रेच की अनिवार्यता।
  • पितृत्व अवकाश: केंद्र सरकार के कर्मचारियों को 15 दिन; निजी क्षेत्र में कोई सार्वभौमिक बाध्यता नहीं—कंपनी नीति पर निर्भर।
  • श्रम-भागीदारी: पीएलएफएस 2022-23 के मुताबिक महिलाओं की भागीदारी ‘यूज़ुअल स्टेटस’ में करीब 37%—रुझान ऊपर की ओर।
  • शहरी परिवार: ड्यूल-इन्कम का चलन बढ़ा; डे-केयर, घरेलू मदद और आवागमन की लागत फैसलों को प्रभावित करती है।

अब वापस उसी इंटरव्यू पर। शेट्टी ने धैर्य और समझौते की बात की—यह किसी भी रिश्ते का बुनियादी सिद्धांत है। आपत्ति वहां से शुरू होती है जहां यह ‘समझौता’ एक दिशा में झुकता दिखे। अगर सिस्टम पितृत्व अवकाश और फ्लेक्सी-वर्क को मजबूती दे, क्रेच और सेफ ट्रांसपोर्ट जैसी सुविधाएं रोजमर्रा की हकीकत बनें, तो घर की साझेदारी अपने आप संतुलित होगी। तब निजी राय भी टकराए बिना बहस का हिस्सा बन सकेगी।

सोशल मीडिया रिएक्शंस की झलक:

  • कई यूज़र्स ने बयान को सेक्सिस्ट कहा—“क्यों देखभाल को ‘डिफॉल्ट’ महिला जिम्मेदारी माना जाए?”
  • कुछ ने पारंपरिक मॉडल का समर्थन किया—“घर और बच्चे को एक स्थिर प्राथमिकता चाहिए।”
  • कई ने पितृत्व अवकाश और ऑफिस सपोर्ट की कमी को असल समस्या बताया।
  • पहले C-section टिप्पणी का संदर्भ देकर लोगों ने कहा—“स्वास्थ्य और पेरेंटिंग, दोनों पर साधारणीकृत राय से बचना चाहिए।”

इस समय बहस सिर्फ एक्टर पर नहीं, एक विचार पर है—वह विचार जो हमारी रोज़मर्रा की आदतों और नीतियों से जुड़ा है। परिवार, काम, बच्चों की परवरिश और बराबरी—ये चारों तब साथ चलेंगे जब फैसले ‘चॉइस’ बनें, ‘जेंडर’ नहीं। और हां, Suniel Shetty controversy जैसे हर प्रसंग हमें आईना दिखाते हैं—कि शब्द और नीतियां, दोनों बदलते समय के साथ कदम मिलाकर चलें।